स्वप्न मेरे: यादों के कुकुरमुत्ते

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

यादों के कुकुरमुत्ते

किसको पकड़ो किसको छोड़ो ... ये खरपतवार यादों की ख़त्म नहीं होती. गहरे हरे की रंग की काई जो जमी रहती है  सदियों तक ... फिसलन भरी राह जहां रुकना आसान नहीं ... ये लहरें भी कहाँ ख़त्म होती हैं ... लौट आती हैं यादों की तरह बार बार किनारे पे सर पटकने ... कभी कांटे तो कभी फूल ...

सुबह की दस्तक से पहले
लिख आया कायनात के दरवाजे पे तेरा नाम
पूरब से आते हवा के झोंके
महकेंगे दिन भर जंगली गुलाब की खुशबू लिए

भूल नहीं पाता तुम्हें
कि यादों की चिल्लर के तमाम सिक्के
खनकते रहते हैं समय की जेब में
बस तेरे ही नाम से

लम्हों के बुलबुले उठते हैं हवा के साथ
फटते हैं कान के करीब
फुसफुसाते में जैसे अचानक तुम चीख पड़ीं कान में

नहीं आता तूफ़ान हवाओं के जोर पर
तूफ़ान खड़ा करने को
काफी है सुगबुगाहट तेरी याद की

कतरा कतरा रिसते रिसते
ख़त्म नहीं होती यादों की सिल्ली
ढीठ है ये बर्फ मौसम के साथ नहीं पिघलती

समय की पगडण्डी पर
धुंधला जाते हैं क़दमों के निशान
पर उग आते हैं जंगली गुलाब के झाड़
हसीन यादों की तरह


  

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